Tuesday, October 3, 2023

सब सच है..


ज़िंदगी प्यारे रसमलाई है

हां मगर कंडीशंस अप्लाई है


काजू बादाम की तमन्ना थी

हिस्से बस मूंगफली ही आई है


दर्द के हाई टाइड उठते हैं

हमने हंसने की कसम खाई है


कदम उट्ठें मेरे तो कैसे उठें

पीछे कुआं है आगे खाई है


हम तो वादाफरोश ही निकले

तुमने भी कौन सा निभाई है!


चलो ओयो के रूम ढूंढते हैं

अब यही प्यार की गहराई है

 

-गिरिजेश (27.11. 2022)

Thursday, February 24, 2022

खोज खबर

 नज़राना साजन का प्यार

बूटे सारे जिसमें हज़ार

लहराती जाए अलबेली नार

लाल दुपट्टा मलमल का..

रौशन के गले में मुन्ना अज़ीज़ जैसे घर करके बैठे थे. हूबहू वही आवाज़. वो आंखें मूंदे डूबकर गा रहा था. हम सारे सन्नाटा खींचे सुन रहे थे. उसकी सुरीली तान हम पर जादू कर रही थी लेकिन डर था कहीं आवाज़ बाहर न चली जाए. दिवाकर सर ने सुन लिया तो हम सबकी खैर नहीं. दरवाज़ा यूं तो अंदर से बंद था लेकिन हम चौकन्ने थे. किसी भी वक्त उनकी एंट्री हो सकती थी. सर साफ कह चुके थे- इस क्लास में फिल्मी-विल्मी नहीं चलेगा, समझे?.’

दिवाकर सर को अंदाजा भी नहीं होगा कि ये हमारे लिए कितनी बड़ी सज़ा थी. अपने लिए तो संगीत का मतलब ही था फिल्मी गाना. कोई सानू का दीवाना था तो कोई उदित नारायण का. कोई किशोर के तराने गाता तो कोई मन्ना डे और यसुदास के नाम पर रौब गांठता. कुछ की लिस्ट में ठंडा-ठंडा पानी वाले बाबा सहगल, पुरानी जीन्स और गिटार वाले अली हैदर, हवा-हवा वाले हसन जहांगीर और दिल तोड़ के हंसती हो मेरा वाले अताउल्ला खां भी शामिल थे. क्लास शुरू होने से पहले जितना भी वक्त मिलता, हम खुफिया तरीके से महफिल जमाते और एक दूसरे से फरमाइशें करके सुनते थे.

हम सब उस नस्ल के लोग थे जिनकी संरचना में ईश्वर ने सुरों का छिड़काव कर दिया था. बचपन से हमें न जाने कितने रिश्तेदारों, पड़ोसियों के सामने गवाया गया था. कितनी टॉफियां, पैसे हमने इनाम में बटोरे थे. स्कूल की प्रार्थना सभा में हम म्यूजिक टीचर के साथ खड़े होते थे और वार्षिकोत्सव में हमारा एक मेडल पक्का होता था. हम बेहिसाब मौकों परक्या सही गाते हो यारसुनकर फूले हुए लोग थे. इसी क्रम में हमने कहीं न कहीं से समझा था कि और अच्छा गाना है तो सीखना पड़ेगा. इसी सपने के साथ हम सब प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद की इस क्लास में आ गिरे थे. शास्त्रीय गायन, प्रथम वर्ष.

दिलचस्प बात ये थी कि इस क्लास में हर साल तकरीबन 15-20 लड़के एडमिशन लेते. लेकिन जैसे ही सारेग, रेगम, गमप जैसे अलंकारों और यमन, भैरव में रियाज़ का सिलसिला शुरू होता, एक-एक कर इन होनहार गायकों का सब्र टूटता जाता. एग्जाम आते-आते आबादी आधी हो जाती, प्रभाकरयानी छठे साल तक 3-4 बचते और प्रवीण यानी आठवें साल तक तो इक्का-दुक्का ही टिक पाते.

कंपनी बाग के किनारे बने इस भवन की शामें संगीत से गुंजायमान रहतीं. हर क्लास से अलग-अलग स्वर लहरी सुनाई देती. वोकल फर्स्ट ईयर से तीन ताल में भूपाली की बंदिश - बार-बार तोरी बिनती करत हूं, काहे न मानत मोरी बतियांतो प्रवीण की क्लास से विलंबित एक ताल में गोरख कल्याण- रैन भई भारी, पिया बिन सुहागन की’. सितार की कक्षा से राग मधुवंती की अवतारणा करते तार सुनाई देते तो कथक क्लास से तबले की थाप और घुंघरुओं की जुगलबंदी. शाम के एक सवा घंटे वहां कैसे गुज़र जाते, पता ही नहीं लगता. क्लास खत्म के बाद हम गेट पर कल्लू की दुकान पर चाय पीते, थोड़ा गपियाते और घर निकल जाते.   

आप जिस भी कला में औसत से बेहतर होते हैं, उसमें आपका मन लगने लगता है. क्योंकि स्पर्था हर कला में है. आप औरों से कितने बेहतर हैं, इसी से आपको आत्मविश्वास और प्रेरणा मिलती है. रौशन बहुत सुरीला था. उसकी गिनती क्लास के अच्छे बच्चों में होती थी. वो भी जानता था कि वो अच्छा गाता है. दिवाकर सर कभी किसी की तारीफ नहीं करते थे, लेकिन अभ्यास कराते वक्त उनकी आंखें किसी छात्र पर कितनी देर टिकती हैं, इसी से सबका मूल्यांकन हो जाता था. रौशन क्लास में नियमित आता था. दिवाकर सर की बताई एक-एक बात गौर से सुनता था. उसकी कॉपी भी सबसे साफ-सुथरी होती. राग का नाम, आरोह-अवरोह, पकड़, आलाप, बंदिश, तानें सब कुछ सुंदर हैंडराइटिंग में लिखा हुआ. क्लास मिस होने पर तो मदद मांगने के लिए रौशन ही होता था.

क्लास में सुरीले लड़के कई थे लेकिन भविष्य को लेकर उनका अप्रोच बड़ा प्रैक्टिकल था. संगीत जगत में कुछ बहुत बड़ा तीर मारने की उनकी महत्वाकांक्षा नहीं थी. कोई ऑर्केस्ट्रा में गाना चाहता था, कोई प्रभाकर (स्नातक) की डिग्री लेकर म्यूजिक टीचर बन जाना चाहता था तो कुछ यूं ही शौकिया सीख रहे थे. लेकिन रौशन के सपने अलग थे. उसे न सिर्फ संगीत में करियर बनाना था बल्कि नाम भी कमाना था. रागों का रियाज़ करते करते उसके गले से मुन्ना अज़ीज़ का असर तो चला गया लेकिन आवाज़ में वही मिठास बरकरार रही. और बरकरार रहा फिल्मी गानों से उसका बेलौस प्यार. प्रभाकर पूरा होने तक वो संगीत समिति आता रहा, फिर उसका आना बंद हो गया. और इस तरह उससे मुलाकात का सिलसिला भी थम गया.

          ये नब्बे के दशक के शुरुआती साल थे. तब मोबाइल का मकड़जाल नहीं फैला था. किसी से बात करने का मन हो तो अमूमन मिलना ही विकल्प होता था. मुझे याद आया, एक बार जब कटरा के नेतराम चौराहे के पास अचानक रौशन मिला था तो नीचे से ही एक बिल्डिंग के तीसरे माले की तरफ इशारा करके बताया था उसने- यहीं रहता हूं, किराए पर. समिति में महीनों मिलना नहीं हुआ तो एक रोज मैं उसके रूम पर पहुंच गया. मुझे सामने देखकर वो बहुत खुश हुआ. निहायत छोटा सा कमरा था उसका. लकड़ी की तखत वाली बेड ने तीन चौथाई हिस्सा घेर रखा था. बची-खुची जगह में एक मेज, प्लास्टिक की कुर्सी, सुराही, पुराना टेबल फैन, फिलिप्स का छोटा-सा कैसेट प्लेयर, पुरानी फिल्मों के कैसेट्स और दीवार पर टंगे कुछ कपड़े. लेकिन कमरे में घुसते ही जिस चीज़ पर सबसे पहले नजर जाती थी वो था उसका स्वर-संगम से खरीदा हुआ हारमोनियम.

       अगले करीब 2 घंटे तक हम संगीत और संगीत समिति के साथियों और गुरुओं की बातें करते रहे. रौशन की पसंद अब मोहम्मद अज़ीज़ी से शिफ्ट होकर मोहम्मद रफी पर पहुंच चुकी थी. वो एक के बाद एक रफी के गाने सुनाता रहा- तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है, मेरा मन तेरा प्यासा, दिन ढल जाए हाय, मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम.. बातों-बातों में पता चला कि ग्रैजुएशन की पढ़ाई छोड़ दी है उसने. संगीत सीखने के लिए शाहगंज में किसी उस्ताद के पास जाने लगा है. खर्चा चलाने के लिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है. खाना बाहर ही खाता है. संगीत के जुनून को घर वालों का सपोर्ट नहीं है फिर भी आगे मुंबई जाने का मन बना चुका है. इस मुलाकात के बाद फिर इलाहाबाद में हमारा मिलना नहीं हुआ.

       कई बरस गुजर गए.  मैं नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आ गया. जिंदगी एक ढर्रे पर चलने लगी. कंप्यूटर और इंटरनेट पर ज्यादा वक्त गुजरने लगा. साल 2004-2005 रहा होगा. सोशल नेटवर्किंग की एक वेबसाइट आई थी Orkut और बड़ी तेजी से पॉपुलर हो गई थी. अपने-अपने गांव-कस्बों से उखड़े लोग पुराने परिचितों को खोजने के लिए धड़ाधड़ अकाउंट बना रहे थे. उसी ऑर्कुट पर रौशन दोबारा मिला. इस बार उसने मुझे ढूंढा था. तब तक हमारे हाथों में मोबाइल फोन आ चुके थे. बात हुई. पता चला गाजियाबाद में मेरे घर से थोड़ी-ही दूर वसुंधरा में रहता है. वीकेंड पर मिलना तय हुआ. इस बार मुलाकात हुई तो हमारी पत्नियां भी साथ थीं. हम दोनों रौशन के घर गए थे.

रौशन का सजा-संवरा घर देखकर मुझे कटरा वाला उसका अस्त-व्यस्त कमरा याद आ गया. 2BHK वाले इस फ्लैट में सब कुछ नया था, बस उस स्वर-संगम वाले हारमोनियम को छोड़कर. रौशन ने अपने शौक के कुछ और साज़ो-सामान जोड़ लिए थे. एक अच्छा म्यूजिक प्लेयर, ढेर सारी सीडी, इलेक्ट्रॉनिक तानपुरा, कराओके सिस्टम वगैरह. इस बार उसने कराओके ट्रैक्स पर गाने सुनाए. उन दोनों ने खूब अच्छे से मेहमाननवाज़ी की लेकिन पता नहीं क्यों हमें महसूस हुआ कि पति-पत्नी के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. बहरहाल, हमने साथ में डिनर किया और अब आप लोग आओ किसी रोज का वादा लेकर लौट आए.

महानगरों में सब कुछ होता है, फुर्सत नहीं होती. छात्र जीवन की बेफिक्री के आदी हम शुरू में तो व्यस्तताओं को एंजॉय करते हैं लेकिन धीरे-धीरे कब ये व्यस्तता हमारी दिनचर्या बन जाती है, पता ही नहीं चलता. जिंदगी में प्रोफेशनल का दायरा बढ़ जाता है और पर्सनल के लिए वक्त सिकुड़ जाता है. ये जानते हुए भी कि अमुक दोस्त यहीं कुछ किलोमीटर दूर रहता है, उससे मिले हुए महीनों, कई बार बरसों बीत जाते हैं. मैं भी अपने घर-बार, अपने मसलों में व्यस्त हो गया. रौशन से कभी-कभार बात होती रही, धीरे-धीरे वो भी बंद हो गई. फिर कई बरस गुजर गए. 

पिछले महीने मुंबई से एक हमारे एक मित्र का फोन आया.

तुम रौशन को जानते हो ना? तुम्हारे साथ संगीत समिति में था.

हां-हां, अच्छी तरह! यहीं गाजियाबाद में तो रहता है.’

गाज़ियाबाद में नहीं, मुंबई में रहता था. पिछले 5-6 साल से.

ओह, अच्छा. काफी दिनों से बात नहीं हो पाई. क्या हुआ?’

उसकी डेथ हो गई.

क्या!? कैसे? कब?’

पता नहीं क्या हुआ, परसों सुबह वर्सोवा में सड़क के किनारे पड़ा मिला. शायद किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी थी. उसके फोन से किसी को मेरा नंबर मिला, मेरे पास फोन आया तो पता चला.

मेरी आंखों के सामने एक झटके में रौशन का चेहरा, उसकी बातें, उसका गाना, उसकी मुस्कान तैर गई. उसकी मौत की बात पर यकीन करना मुश्किल था. मैं इस पछतावे से भर गया कि इतने साल से उसकी कोई खोज-खबर क्यों नहीं ली. बहरहाल, फोन करने वाले मित्र से रौशन की बीती जिंदगी की जो कहानी पता चली, वो कुछ यूं थी-

रौशन मूल रूप से फैजाबाद का रहनेवाला था. इलाहाबाद वो पढ़ाई करने आया था. लेकिन संगीत की धुन ऐसी सवार हुई कि पढ़ाई बीच में ही छोड़कर संगीत में रम गया. उसका रवैया देखकर घर वालों ने उससे रिश्ते लगभग खत्म कर लिए. किसी दोस्त की मदद से उसे नोएडा में ऑफिस असिस्टेंट की नौकरी मिल गई थी जिसके बाद वो गाजियाबाद शिफ्ट हो गया था. इसी नौकरी के नाम पर घरवालों ने उसकी शादी करा दी. लड़की नोएडा की एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करती थी. रौशन का मन काम में बिल्कुल नहीं लगता था. वो तो नौकरी छोड़ने का बहाना ढूंढ रहा था. जब उसने देखा कि पत्नी की सैलरी से उनका खर्चा चल जाएगा तो एक दिन ऑफिस जाना बंद कर दिया और पूरा समय संगीत को देने लगा.

पत्नी का संगीत से कुछ खास लेना-देना नहीं था. सुबह शाम रौशन को रियाज़ करते देख उसे चिढ़ होती. उसे बुरा लगता कि उसका पति कुछ काम-धाम नहीं करता, हर वक्त गाना लेकर बैठा रहता है. एक छत के नीचे रहते हुए भी पति-पत्नी दोस्त नहीं बन पाए. आए दिन दोनों में झगड़े होते और कई-कई दिन तक अबोला रहता. पत्नी अपने माता-पिता को फोन करती और अपनी फूटी किस्मत का रोना रोती. रौशन भी इस माहौल में घुट रहा था. एक दिन वो सब कुछ छोड़कर मुंबई निकल गया.

किसी दोस्त की मदद से शेयरिंग बेसिस पर उसे वर्सोवा में एक ठिकाना मिल गया. इस रूम में उसके अलावा चार लोग और थे जो फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ी अलग-अलग फील्ड में संघर्ष कर रहे थे. दरअसल मुंबई टैलेंट का महासागर है. ये शहर बड़े-बड़े तीसमार खां का विश्वास हिला देता है. अपने इलाहाबाद में खास तवज्जो पाने वाला रौशन मुंबई पहुंचकर स्ट्रगलर सिंगर्स की बहुत बड़ी भीड़ का हिस्सा बन गया. रौशन जैसा गाने वाले यहां गली-गली में घूम रहे थे. प्राइवेट चैनलों पर आने वाले म्यूजिकल रियलिटी शोज़ की टैलेंट हंट टीमें सवा सौ करोड़ की आबादी से संगीत के हीरे चुन-चुन कर सामने ला रही थीं. इनमें से ज्यादातर अपना भविष्य संवारने के लिए मुंबई में ही जम जाते थे. जाहिर है टैलेंट की ओवर-सप्लाई हो रही थी.

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि प्रतिभाशाली लोगों के लिए मुंबई में काम नहीं है. वहां अखबारों में हर रोज़गाता रहे मेरा दिल’, तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’, ‘आधा है चंद्रमा रात आधीजैसे नामों से होने वाले फिल्मी म्यूजिक शोज़ के विज्ञापन निकलते थे. बॉलीवुड के अलग-अलग सिंगर्स और म्यूजिक डायरेक्टर्स को समर्पित ये शोज़ टिकटेड होते थे. रौशन ने ऐसे ऑर्गनाइजर्स से मिलना शुरू किया और आखिरकार उसे काम मिलने लगा. इससे कुछ पैसे आने लगे. इनके अलावा उसने मौका तलाशा कुछ नामी रेस्टोरेंट्स में होने वाले वीकेंड लाइव म्यूजिक में. इस तरह लाइव शोज और रेस्टोरेंट्स में गाकर उसका खर्चा निकलने लगा था. सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन ऊपर वाले के खाते में उसका संगीत सफर शायद यहीं तक लिखा था. दो रोज़ पहले शायद ऐसे ही किसी शो के बाद वो देर रात घर लौट रहा था जब किसी गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी.

सूचना देने वाले मित्र ने बताया कि मुंबई में उसकी बॉडी को क्लेम करने वाला कोई नहीं. उसके मोबाइल फोन में नंबर देखकर फैजाबाद खबर कर दी गई है, शायद कोई आता हो.

                                                       (गिरिजेश, 20 अक्टूबर 2021)

Wednesday, October 28, 2020

जनरेशन गैप

 शराब पीने के बाद

सार्वजनिक मंचों (सोशल मीडिया) पर

जो क्रिया या प्रतिक्रिया

मैं पूरे विश्वास के साथ दर्ज करता हूं

सुबह उठते ही

वो मुझे 

अनुचित

अन्यथा

 लगने लगती है

मेरी छवि के अनुशासन का

उल्लंघन लगने लगती है

शराब के असर

और उसके असर से मुक्ति के बीच

इतना बड़ा जनरेशन गैप है

Tuesday, June 16, 2020

रईस

माचिस 1 रुपए में आता है
लाइटर 10 रुपए में
मैं अब लाइटर खरीदता हूं
ये मेरे रईस होने की शुरुआत है

Friday, June 14, 2019

मनीष थापा के लिए

तुम कहो तो मर भी जाऊं मैं

मगर इक शर्त है

बस कफ़न के वास्ते

आंचल तुम्हारा चाहिए

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निजात


क्यों ताउम्र सांस लेती हैं  

सबसे मासूम सिहरनें? 

सबसे अवांछित स्मृतियों पर  

क्यों नहीं लग जाती ज़ंग? 

जब भी लिखना चाहूं रंग 

उसी वर्जित गली में  

क्यों मुड़ जाता है मन? 

Tuesday, December 1, 2015

दुविधा

ऐसे महानुभावों की अति विनम्रता का क्या करें
जो खुद को जरूरत से ज्यादा आंक कर बैठे हुए हैं !!